Madhuyamini

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Radhakrishna Prakashan, Sep 1, 2008 - 130 pages

महिला कथाकारों में जितनी ख्याति और लोकप्रियता शिवानी ने प्राप्त की है, वह एक उदहारण है श्रेष्ठ लेखन के लोकप्रिय होने का ! शिवानी लोकप्रियता के शिखर को छू लेनेवाली ऐसी हस्ती हैं, जिनकी लेखनी से उपजी कहानियां कलात्मक भी होती हैं और मर्मस्पर्शी भी ! अन्तेर्मन की गहरी परतें उघाड़ने वाली ये मार्मिक कहानियां शिवानी की अपनी मौलिक पहचान है जिसके कारन उनका अपना एक व्यापक पाठक वर्ग तैयार हुआ ! इनकी कहानियां न केवल श्रेष्ठ साहित्यिक उपलब्धियां हैं, बल्कि रोचक भी इतनी हैं कि आप एक बार शुरू करके पूरी पढ़े बिना छोड़ ही नहीं पाते ! प्रस्तुत संग्रह में तोप, मधुयामिनी, प्रतिशोध, मरण सागर पारे, गजदंत, मित्र, दादी, भीलनी, चलोगी चन्द्रिका? एवं गन्धारी कहानियां संकलित हैं ! हर कथा अपनी मोहक शैली में अभिभूत कर देने की अपार क्षमता रखती है ! कलात्मक कौशल के साथ रची गई ये कहानियां हमारी धरोहर हैं जिन्हें आज की नयी पीढ़ी अवश्य पढना चाहेगी ! 

 

Contents

Section 1
7
Section 2
31
Section 3
49
Section 4
58
Section 5
71
Section 6
80
Section 7
90
Section 8
107
Section 9
123
Copyright

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Common terms and phrases

अपनी अपने अब आँखें आँखों आई आज आया इस इसी से उनकी उनके उन्हें उस उसका उसकी उसके उसने उसी उसे एक दिन एक बार ऐसी ऐसे ओर और कभी कमरे कर दिया करने कह कहा का कि किन्तु किया किसी की की भाँति कुछ के लिए के साथ को कोई क्या क्यों गई थी गए गया था घर चन्द्रिका चाय चेहरा चेहरे छोटी जब जा जाता जाती जैसे जो ठीक तक तब तुम तुम्हें तो तोप था कि थीं थे दिद्दा दिया था दी दे देख देखा देती दो दोनों न जाने नहीं ने पति पर पर भी पहले पास पुत्री फिर बड़ी बन बना भी भी नहीं मित्र मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं मैंने यह यहाँ रह रहा था रही थी रहे राधा रूप लगा लगी लिया ले वह वही विलास विवाह शंकर शायद साड़ी सी से सौदामिनी स्वयं हम हाथ ही हूँ है हैं

About the author (2008)

गौरा पंत 'शिवानी' का जन्म 17 अक्टूबर 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ । आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक पिता श्री अश्वनीकुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे । माता और पिता दोनों ही विद्वान, संगीतप्रेमी और कईं भाषाओं के ज्ञाता थे । साहित्य और संगीत के पति एक गहरी रुझान 'शिवानी' को उनसे ही मिली । शिवानी जी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे, परम्परानिष्ठ और कटूटर सनातनी थे । महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहन मैत्री थी । वे प्राय: अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अत: अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ शिवानी जी का बचपन भी दादाजी को छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता । उनकी किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में, और युवावस्था अपने शिक्षाविद पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में । पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमरीका में बसे पुत्र के परिवार के बीच अधिक समय बिताया । उनके लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अदभुत मेल है, उसकी जडें इसी विविधमयतापूर्ण जीवन में थीं । शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली 'नटखट' नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी । तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं । इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बडी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गई, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें 'गोरा' पुकारते थे । उनकी ही सलाह, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया । 'शिवानी' की पहली लघु रचना "मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में धर्मयुग में छपी थी । इसके बाद आई उनकी कहानी 'लाल हवेली' और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा । उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी' तथा 'सोने दे' उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं । 1979 में शिवानी जी को पदूमश्री से अलंकृत किया गया । उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र 'स्वतंत्र भारत' के लिए 'शिवानी' ने वषों तक एक चर्चित स्तम्भ 'वातायन' भी लिखा । उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्तां कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे । 21 मार्च 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ ।

 

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