Maraghaṭa kī rākhaNīlama Sṭorsa, 1965 - 96 pages |
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अगर अच्छा अन्न अपनी अपने अब अभी अलखी आप इतना इस इसी उसका उसकी उसके उसने उसे एक ऐसा ओर और कर करता करना कह कहीं का काम कि किया किसी की बात कुछ के पास के लिए कोई क्या क्यों गए गगरू घर चल चला जब जा जाता जायेगा जी जीवन जो झोपड़ी तक तब तरह तुम तुम्हारे तुम्हें तो थी थे दिया दिया है देख देखकर देश दो धनिया नहीं है नाम ने कहा पड़ा पर पूछा प्रभात बाबू फिर बड़ा बाद बेटा बोला भाई भी भैया मंगरू मंगरू ने मत मन माँ मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं मैंने यह यहाँ रहा था रहा है रही रुपया लगा ले लेकर लेकिन लोग लोगों वह वे शेखर को शेखर ने श्रोझा सकता सब सभी समय समाज सामने से सेठ सेठजी हम हाँ हाथ ही हुआ हुए कहा हूँ है कि हैं हो गई हो गया होकर होगा