Sapanā abhī bhīभारती जी की कविता ने पाँचवें दशक के आरम्भ में अपनी जो अनूठी पहचान बनायी, वह सदी पार कर आने तक ज्यों-की-त्यों ताज़ा तो बनी ही रही, दिनों-दिन और गहराती गयी। कथ्य की परिपक्वता और शैली के वैविध्य के साथ-साथ काव्य विषयों की परिधि जिस तरह विस्तृत होती गयी, वह सचमुच आश्चर्यजनक है। अलस्सुबह का मांसल, फिर भी स्वप्निल प्यार हो; या पुराने किले में समकालीन इतिहास की संकटपूर्ण विडम्बना, या मुँह-अँधेरे महक बिखराते हरसिंगार, या पकी उम्र का प्यार, या मुनादी में जनान्दोलन की ललकार-भारती जी की संवेदना-परिधि में सब एक विशिष्ट मार्मिकता से अभिव्यक्त होते हैं। कहीं भी छद्म बौद्धिकता नहीं, बड़बोले उपदेश नहीं, सिद्धान्त छाँटने का आडम्बर नहीं-सहज संवेदनशील अभिव्यक्ति, जो सीधे मर्म को छू जाये। वर्षों की आतुर प्रतीक्षा के बाद आने वाला उनका यह काव्य संकलन उनके विशाल पाठक वर्ग के लिए एक काव्योत्सव ही नहीं है, एक अतिरिक्त विशिष्ट अनुभूति भी है, जहाँ कवि की समस्त काव्य-क्षमताएँ अपने चरमोत्कर्ष पर हैं। पर वह चरमोत्कर्ष भी विराम नहीं क्योंकि है–सपना अभी भी... |
From inside the book
Try this search over all volumes: %E0%A4%9C%E0%A4%AC
Results 1-0 of 0
Other editions - View all
Common terms and phrases
अँधेरे अपना अपनी अपने अब अभी भी आया आवाज इन इस उन उस उसकी उसके उसने उसे और कब कभी कभी-कभी करता कविता कहा कहाँ कहीं का कि किसी की तरह कुछ के पास के लिए को कोई कौन क्या क्यों क्योंकि खामोश गंगा गया गयी गये गाँव घर चारों ओर जब जहाँ जाता जाती है जाते जाने जाय जिसे जो तक तन तुम तुमने तुम्हारे तुम्हें तो था थी थे दिन दिये दी दूर दो धर्मवीर भारती धूप नवम्बर नहीं नाम ने पर पाँव पार प्यार फिर फूल फूलों बन बरसों बहुत बार भर भी मगर मत मन मुझे में मेरे मैं मैंने यह या याद ये रंग रहा रही रहे हैं रात राह लड़की लहर ले लोग वह वही वे शब्द शहंशाह शाम सच सब समुद्र साइकिल साथ सिर सिर्फ से हम हर हवा हाथ ही हुआ हुई हुए हूँ है है एक है कि हैं हो