Madhu kalaśaRājapāla, 1966 - 126 pages |
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अपना अपनी अपने अब आज लहरों में इन इस उपहास जिसका वह उर उस एक और कर करता कवि कवि का कविता का कि किंतु किया किसी की कुछ के कैसे रुकूं मैं को कोई क्या क्यों गान मेरा गई गया छा जब जिस जिस-जिस काल पढ़ता जिसका वह कभी जो तक तीर पर कैसे तुक तू तो था थी थे दिन देख नभ नहीं निराशा से भरा ने पथ पर पर कैसे रुकूं पल पाया पार पूछता जग प्रति फिर बन मेघ जाता भर भरा जीवन मुझमें भरी मेरी गागर भी मधु कलश मधुशाला मन माली मुझे में उपहास जिसका मेघदूत मेरा मेरी मेरे मैं मैं स्वयं बन मैंने यक्ष यदि यह रहा है रही लहरों में निमंत्रण ले वह वह कभी थी विश्व में उपहास श्राज संस्करण से से भरा क्यों स्वप्न स्वयं बन मेघ ही हूँ हृदय है आज भरा है निराशा से हैं होकर होगा