Śrī Jānakīvallabha Śāstrī

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Hindī Sāhitya Sammelana, 1973 - 204 pages

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4
Section 2
33
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34

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अपनी अपने अब अभी आई आकाश आग आज आत्मा आया इस उर उस एक ऐसे ओर और कभी कर करता कला कवि कहाँ कहीं का कि किन्तु किस किसी की कुछ के के लिए केवल कैसी कैसे को कोई कौन क्या क्यों गई गए गगन गन्ध गया गान छोड़ जग जब जल जाता जाती है जीवन जैसे जो ज्यों ज्योति तक तन तब तुम तुम्हारी तू तेरी तो था थी थे दिन दूर देखो दो धरती धूप धूल नभ नयन नव नहीं ने पथ पर पवन प्रकाश प्राण फिर फूल बन बना बहन बादल बोल भर भाव भी मत मन मर्मर माँ मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं यह यही या युग यों रस रह रहा रहा है रही रहे रूप रे ले वन वसन्त वह शून्य सत्य सब सा सागर सिन्धु सी से स्वर स्वर्ग ही हुआ हुई हुए हूँ हृदय है हैं हो होता होती होने

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