सुलगते मौसम में

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 मैं ख़ानाबदोश, नाक़ाबिले-बर्दाश्त एक गुमनाम, गुस्ताख़ शायर और लेखक हूँ, मेरी शायरी की पहली किताब (सुलगते मौसम में) आप लोगों के हुज़ूर पेश है, उम्मीद करता हूँ कि आपको हर हाल में पसंद आएगी, क्योंकि इसके अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं है, यूँ तो सब की तरह उसने मुझे भी एक ज़िंदगी अता की थी, लेकिन कोई नौकरी और ग़ुलामी में फंस कर रह गया तो कोई दौलत और अय्याशी में डूब गया, अलग़रज़ कोई अपने जीवन की लाज बचाने के लिए बीवी बच्चों की परवरिश में मुब्तिला हो गया, सबको कोई न कोई काम चाहिए था, लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, माँ बाप का नाफ़रमान बना, ज़लीलो-ख़्वार हुआ, निकम्मा और कामचोर का ख़िताब अच्छे नंबरों से जीता, लेकिन अब तक के 35 साल क़िस्मत की सख़्त ज़ंजीरों के बावुजूद अपनी मर्ज़ी से अपनी शर्तों पर जिए, इसलिए मेरे कलाम में इतना असर होना लाज़मी है कि मैं लौहे-जहाँ पर अपने नाम की छोटी सी एक मोहर लगा सकूँ, और अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर यही कहूँगा कि बीवी बच्चों को पालने वाले मुझसे जीत गए हैं, लेकिन ऐसी जीत से मुझे हार पसंद होगी, क्योंकि मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, मैं जैसा भी हूँ अच्छा या बुरा? ये ज़िंदगी मेरी ख़ुद की चुनी हुई है, इसलिए मुझे नाज़ है अपनी पसंद पर, बाद मरने के कम से कम कोई ये तो नहीं कहेगा कि दुनिया से एक मज़दूर चला गया!

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