Ātī hai jaise mr̥tyuVāgdevī Prakāśana, 1990 - 80 pages |
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अक्सर अचानक अन्दर अपनी अपने में अब भी है अभी आँखों आँगन आती है जैसे आत्मा आने आयीं इस उगी हो उतर गयी है उस को उसे ऊँची एक और कभी करती हुई कहीं का कि कितना किसी की कुछ के के बीच के लिए क्या खुद को खुल कर गये गलियाँ गो गोबर घनी घर चौक छतें जब जल जाता है जाती जाते हैं जानती जाने जो झील तंग तक तब भी तुम तुम्हारे तुम्हें तो था दया दुनिया दुपहर देती देह दो नदी नहीं कोई पर पल फिर बन्द बारिश बाहर बीकानेर बेघर हुआ जाता बैठी भर मुझ मुझे मेरा प्यार मेरी मेरे मैं मैंने यदि यह या याद रहा रही है रहूँगा रेत लगी लेकिन लौट वह शाम सब सभी समतल नहीं है सा सारी सी सूनापन सूरज से हँसी हर हरा हवा ही हुआ हुई हुए हूँ है जैसे मृत्यु है मेरा होता होती होने