Ātī hai jaise mr̥tyu |
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अचानक अन्दर अपनी अपने में अब भी है अभी आँगन आती है आत्मा आने इस उगी हो उन उस को ऊँची एक और कभी करती करती हुई कहीं का कि कितना किसी की कुछ के के बीच के लिए क्या खुल कर खो गये गलियों गो गोबर घर चल चौक छत छतें जल जाता है जाती जाते हैं जानती जाने जितनी जैसे जो तक तब भी तुम तुम ने क्या तुम्हारे तुम्हें तो था दया दुनिया दुपहर देख देती देह दो नहीं कोई नहीं है शहर पर पल फिर बन्द बस बाजार बारिश बाहर बीच-बीच में बेघर हुआ जाता भर मुझ मुझे मेरा प्यार मेरी मैं यदि यह या याद रहा रही रहीं रहूँगा रा रेत रोहीं लगी लेकिन लौट वह शाम सब सभी सारी सूरज से सोया रहता है हर हर बार हरा हवा ही हुआ हुई हुए हूँ है मेरा हो तो होता होती होने