Ushā aura ādityaVikretā Prakāśana Sandha, 1962 - 158 pages |
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अन्दर अपनी अपने अब आई आज आदित्य आप आया इस उठा उठी उस उसका उसकी उसके उसको उसने उसे ऊषा ऊषा ने एक बार ओर और कभी कर करता करती करने कह कहा का किया किसी की कुछ के के लिए को कोई क्या क्यों गई गया घर चल चाय जब जा रही जाता है जाती जाने जी जीवन जैसे जो तक तरह तुम तुम्हारे तुम्हें तो थे दिन दिया दिल्ली दी दे देख देखा दो दोनों नहीं है नीलिमा ने पर परन्तु पास प्रेम फिर बहुत बात बाद बाहर बैठ बोला बोली भी मत मनोज मनोज ने मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं मैंने यदि यह यही रक्षा रजनी रह रहा था रही थी रही है रहे लगा लगी लिया ले लेकिन वह व्यक्ति सकता सब समय सा साड़ी साथ सामने सी से स्त्री हाथ ही ही नहीं हुआ हुई हुए हूँ हृदय है कि हैं हो होता