Rogi-parīkshā-vidhi

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Caukhambhā Bhārati Akādamī, 1982 - Clinical medicine - 452 pages

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3
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13
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१० १५ अतः अधिक अन्य अर्बुद आदि आयुर्वेद इन इस इसका इसके इसमें उत्पन्न उदर उसे एक एवं कम कर करते करना करनी चाहिए करने कहते हैं का का ज्ञान काल किन्तु किया जाता है की ओर की परीक्षा कुछ के कारण के द्वारा के लिए को क्षय गति चाहिए चाहिये चिकित्सा जब जाती जाय जो ज्वर तक तथा तब तीव्र तो दर्शन दो दोनों दोष दोषों ध्वनि नहीं नाड़ी निदान निम्नांकित पाण्डु पित्त पुरुष प्रकार प्रकृति प्राकृत भाग भी मात्रा मूत्र में में भी यथा यदि यह या ये रक्त रस रूप रोग रोगी के रोगों लक्षण वर्ण वह वात वायु विकार विकारों विकृति विचार विशिष्ट वृद्धि शरीर शुक्र शूल शोथ समय सु सू स्थान स्थिति स्पर्शन स्वरूप ही हृदय है और है कि हो जाता है होता है होती होते हैं होना होने पर होने से

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