Vyaṅgya! vyaṅgya! vyaṅgya!

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Klāsika Pabliśiṅga Hāusa, 1994 - Satire, Hindi - 165 pages

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अपनी अपने अब अरे आज इन इस इसलिए उनकी उनके उन्हें उन्होंने उस उसकी उसके उसे एक ऐसा ऐसे और कई कभी कम कर करते करना करने कहते हैं कहा कहीं का काम कि किया किसी की कुछ के लिए को कोई कौन क्या क्यों गई गए गया घर घी चाहे जब जा जाता है जाते हैं जैसे जो ज़्यादा ठीक तक तब तरह तो तो फिर था थी थे दिन दिया दुनिया देश दो नहीं नहीं है नाम ने पर पहचान पहले पाकिस्तान फिर बड़ी बड़े बन बस बहुत बात बाद बिना भारत भी भोपाल मुँह मुझे में ही मैं यह यहाँ यही या ये रहा है रही रहे हैं लगे लेकिन लेते हैं लोग लोगों वह वहाँ वाले वे वैसे संस्कृति सचमुच सब सभी सरकार सही साथ साहब से हम हमारे हमें हर ही ही नहीं हुआ हुए हूँ है कि हो होता है होती होते

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