KaviśrīSetu Prakāśana, 1970 - 79 pages |
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अँधेरी अपनी अपने अब आज आदमी आस्था इन इन्दौर इस इसलिए उज्जैन उनकी उन्हें उन्होंने एक ओर और कर करते कल कला कवि कविता कविताओं कहीं का काटो धान काव्य कि किया किस किसी की तरह की भाँति कुछ के कवि के लिए को कोई कौन गगन गया ग्वालियर चित्र जब जा सकते जिन्दगी जीवन की जो झाँसी तक तुम तुम्हारे तो दिन दिया दूर दृष्टि देते हैं दो धरा नई नये नव नहीं नहीं देंगे नूतन ने पर प्यार प्रयोग प्राण फिर फूल बन बात भर भवितव्य के भारत भाषा भी मत मन महेन्द्र भटनागर महेन्द्र भटनागर की मानव मानवता में मैं यह या युग रचनाओं रचनाकार रहा रही है रहे रात री रूप रे लो वह विश्वास वे संगीत सकते हैं सा साथ सिर्फ सुबह से स्नेह स्वप्न स्वर हम हर हिन्दी हिमालय ही हूँ हृदय है और है कि हैं हो होकर होता है