Kundakunda kā Pañcāstikāyaḥ: Jaina-cintana meṃ paramparā aura prayoga

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Yaśa Pablikeśansa, 2005 - Jaina philosophy - 396 pages
On traditions and practice in Jaina ontology and epistemology as depicted in Pañcāstikāyaḥ, written by Kundakunda, 2nd cent. Jaina exponent.

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अतः अनन्त अनेक अन्य अपने अर्थ अर्थात् आकाश आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा आदि आधार इन इस प्रकार उस उसका उसके उसे एक एवं कथन कर करता है करते हुए करना करने कर्म कर्मों कहते हैं कहा गया है कहा है कि का काल किन्तु किया गया किया है किसी की की अपेक्षा कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार के कारण के रूप में के लिए केवल को कोई क्योंकि गाथा गुण जब जाता है जिस जीव जैन दर्शन जो ज्ञान तक तत्त्व तथा तो दृष्टि से दो दोनों द्रव्य धर्म नहीं है नाम ने पं० का० पंचास्तिकाय पदार्थ पर परन्तु परमाणु पाप पुण्य पुद्गल पूर्व पृ० प्राप्त भाव भी भेद माना मोक्ष यदि यह या ये रूप से लोक वस्तु वह वही वाराणसी वे वेदान्त वैशेषिक शब्द शरीर संबंध सकता है समस्त सिद्धान्त स्पष्ट स्याद्वाद स्वरूप ही है और है कि हैं हो जाता है होता है होती होते हैं होने से

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