Satya ke avaśeshaSāhitya Pracāraka, 1971 - 314 pages |
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अग्निमित्र अपना अपनी अपने अब अभी आचार्य आज आज्ञा आप इतना कह इस उन्हें उस उसका उसकी उसके उसने उसी उसे एक और कक्ष में कर रहे करते करना करने करने के कहा का कार्य कि किन्तु किया किया है किसी की ओर कुछ के लिए के साथ केवल को कोई क्या क्षण खड्ग गई गये जब जा जाने जो ज्ञात तक तुम तुम्हें तो थी थे दी देखा देव देवदत्त देवी दो दोनों द्वार धर्म नगर नहीं ने ने कहा पर पश्चात् पाटलिपुत्र पास पुष्यमित्र प्रकार प्राप्त फिर बाहर बौद्ध धर्म भवन भिक्षुक भी मगध महामात्य महाराज मुख मुझे मैं यवनराज यह युद्ध युवक रहा था रही राज्य लगा लिया ले लोहित वसुमति वह वहाँ विचार विदर्भ विहार वीरभद्र वे शक्ति सकता सब समय सम्राट साम्राज्य सुभांग सुभागा से सेना सेनापति हम हमारे हमें ही हुआ हुई हुए हूँ है है कि हैं हो गया होगा होने