Aśru peṛa jhareBhāvanā Prakāśana, 1990 - 95 pages |
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अकेले अपना अपनी अपने अब आंखें आंखों आंगन आकाश आज इस इसकी इसी उस उसका उसकी उसे एक दिन और कई कभी कर करने कविता कहां कहीं का कि किन्तु किसी की कुछ कुलजीत शाने के के लिए केवल को कोई क्या खो गई गए गांव घर छाया जब जल जाएगा जाता है जाती जाते जाने जीवन जो तक तट पर तब तुम तुम्हारे तुम्हें तो था दर्द दिया दूर देख देखा देहरी द्वार धरती नक्षत्र नदी नहीं निरन्तर ने पंख पक्षी पर पहाड़ पानी पेड़ पौधों फल फिर फूल बच्चा बन बस बसन्त बहुत भर भी भीतर मन मिट्टी मिल मुझे में मेरे मैं मौन यह या ये रह रहा रही है रहे रात लगा लगी लगे ले लो वह वाली वृक्ष वो सकती सा सांसों सागर साथ साथ-साथ सी सूर्य से हर हवा हाथ हाथों ही हुआ हृदय है कि है यह हैं हो गया होता