Kanupriyā

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Bhāratīya Jñānapīṭha, 1959 - Hindi poetry - 89 pages

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15
Section 2
17
Section 3
48

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अक्सर अगर अनन्त अपनी अपने अपने को अब अर्जुन आज आम के आम्र इतिहास इन इस उस उसी उसे एक और तुम और मैं कनु कभी कर करती कहा है का कि तुम कि मैं कितना कितनी बार की तरह कुछ के केवल कैसे को कोई कौन है क्या क्यों क्षण खड़े गया है गयी गये गीत जब तुमने जा जाती जाना जिसे जिस्म जो तक तन तन्मयता तुम मेरे तुमने तुमसे तुम्हारे तुम्हें तो तो मैं था थी दिन दिया दो नहीं नहीं आयी नहीं है ने पगडण्डी पर पाती पास प्यार प्रतीक्षा फिर बन बाँहों बार-बार बौर भय भर भी मांग मात्र मान मुझे में मेरा मेरी मेरे मैंने यमुना यह या ये रही रहे हैं लगता है लिया ले लो वह शब्द सब समझ समय समुद्र सा सारे सिर्फ सी सुनो सृष्टि से सो ही हुआ हुई हुए हूं है और है कि हो और होकर

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