Lakhimā kī āṅkheṃRājapāla, 1972 - 149 pages |
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अपनी अपने अब अभी आंखें आए आज आनन्द आप इस उनके उस उसकी उसके उसे एक ऐसा ओर और कभी कर करके करते करने कवि कवि ठाकुर कहता है कहती कहते हैं कहां का कि किन्तु किया की कुछ के के लिए केवल को कोई कौन क्या क्यों क्योंकि गई गया है गीत चला जब जा जाता है जाती जाने जीवन जैसे जो तक तब तुम तुर्क तो था थी थे दिन दिया दिल्ली दे देखता देखा देवी दो नहीं नहीं है ने ने कहा पर पास प्रेम फिर बड़ा बहुत बाबा भी मन महाकवि महाराज माधव मिथिला मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं मैंने यह रहा है रही रहे हैं राजा रूप लगता लगा लोग वह वही विदूषक विद्यापति वृद्ध वे शिव सकता सब समय साथ सिवसिंह सुनाई से स्त्री स्वर हम हां ही हुआ हुए हूं हे है और है कि हो गया होकर होता है